नीड़ का निर्माण
आज नेट पर मुझे बच्चन जी की यह कविता मिली। यह कविता मुझे बहुत पसंद आती है।
नीड़ का निर्माण
नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर।
बह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अंधेरा
धूलि घूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा,
रात सा दिन हो गया, फिर
रात आई और काली
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,
रात के उतपात भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किन्तु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर,
नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर।
वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर,
हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलों पर क्या न बीती,
डगमगाए जबकि कंकड
ईंट पत्थर के महल-घर,
बोल आशा के विहंगम
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर-फिर,
नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर।
क्रुद्ध नभ के वज्र दन्तों
में उषा है मुस्कुराती
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती,
एक चिड़िया चोंच में तिनका
लिए जो जा रही है
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती,
नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नवगान फिर-फिर,
नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर।
- हरिवंश राय बच्चन
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